Friday, June 8, 2007

गुनगुनातय हुए आँचल की हवा देय मुझ को

गुनगुनातय हुए आँचल की हवा देय मुझ को
उंगलियाँ फेर के बालों मे सुला देय मुझ को!

जिस तरह फ़ालटू गुलदान पराय रेहता हैं
अपने घर के किसी कोने से लगा देय मुझ को!

याद कर के मुझेय तकलीफ़ ही होती होगी
एक क़िस्सा हूँ पुराना सा, भुला देय मुझ को!

डूबते डूबते आवाज़ तेरी सुन जाओं
आख़री बार तू साहिल से सदा देय मुझ को!

मैं तेरे हिज़र मैं चुप चाप ना मार जाओं कहीं
मैं हूँ सकते में, कभी आ के रुला देय मुझ को!

देख मैं हो गया बदनाम किताबों की तरह
मेरी ताश-हीर ना कर, अब तो जला देय मुझ को!

रूठना तेरा मेरी जान लिए जाता है
ऐशा नाराज़ ना हो, हँस के दिखा देय मुझ को!

लोग कहेते हैं की ये इश्क़ निगल जाता है
मैं भी इस इश्क़ मैं आया हूँ, दुआ देय मुझ को!

एही औक़ात है मेरी तेरे जीवन में सदा
कोई कमज़ोर सा लम्हा हूँ, भुला देय मुझ को...

1 comment:

NEHA JAISWAL said...

ALL OF YOUR POEMS ARE JUST SUPERB N HEART TOUCHING. ITS REALLY DIFFICULT TO SAY WHICH ONE IS BETTER....SO I WILL ONLY SAY...YR ABILITY OF WRITTING IS WONDERFULL SO JUST KEEP UP THE GOOD WORK....ALL THE BEST...!!